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Thursday, February 14, 2019

शहीदों की पुकार, देश वासियों के नाम!

हमें-
श्रद्धांजलि-
नहीं चाहिए
किसी की भी
हमें तो चाहिये बदला
अपनी शहादत का
हम तो मिट गए हैं सब
देश के लिए दे दी है जान
अब देखते हैं हम
कैसे रखोगे तुम ?
हम सबकी क़ुर्बानी का मान
ख़ून में तुम सब के
अगर बहती रवानी है
दुश्मन की ज़िन्दगी
ख़ून से नहलानी है
देश के आकाओं
दो छूट सेना को खुली
मारे घर में घुस कर दुश्मनों को
मचा दे आतंकियो में खलबली
तुम्हारी श्रद्धांजलि
तभी होगी क़ुबूल
जब इन दहशतगर्दों को
चटा दोगे धूल
आज अगर इनको
नहीं सबक सिखाया
मिल जायेगा मिट्टी में
देश ने जो था नाम कमाया
आँसुओं को अपने
यूँ न जाया करना
मौत का ग़म तुम
दिलों में यूँ न भरना
मरने को वतन पर
हमने थी कसम खायी
पर जालिमों ने हद की
धोखे से बस उड़ाई
आत्माएं हमारी
तब तक न शांत होंगी
जब तक दुश्मन की
न जान भयाक्रांत होगी
जयहिंद!
अम्बर हरियाणवी

Wednesday, February 6, 2019

श्रीकृष्ण उवाच !

मैं ही सब हूँ, मैं सब में हूँ,
तुम भी मैं हूँ, मैं ही तुम हूँ,
धरती मैं हूँ, गगन मैं हूँ,
अग्नि भी मैं हूँ और पानी भी मैं हूँ,
सांस भी मैं हूँ, रवानी भी मैं हूँ,
जीव चराचर, इस धरा पर,
सबके अंदर भी मैं ही हूँ,
दोस्त भी मैं हूँ, और दुश्मन भी मैं हूँ
मैं ही देता जीवन और मौत भी मैं ही हूँ,
अर्जुन को उकसाया मैंने,
सामने तेरे बंधु-बांधव
वो भी तो मैं ही हूँ अर्जुन
इनको मारों तब भी मैं हूँ
न मारोगे तब भी मैं हूँ
स्वर्ग भी और नर्क भी मैं हूँ
सच्चाई और झूठ भी मैं हूँ
सबकी बुद्धि हूँ मैं
और स्वविवेक भी मैं ही हूँ
महाभारत का युद्ध भी मैं हूँ
मरते योद्धाओं की मौत है मुझमें
ज़िन्दा लाशों के ढेर भी मैं हूँ
विधवाओं का रुदन भी मैं हूँ
अनाथों का क्रदन भी मैं हूँ
अंबर से धरा तक मैं हूँ
सूर्य और चंद्र भी मैं हूँ
रात का काला अँधियारा हूँ मैं,
दिन का तेज उजाला भी मैं हूँ
ज़िन्दगी की गर्मी है मुझ से,
मौत की ठंडाई भी मैं हूँ
बच्चों की किलकारी में बसता,
नवयौवन की उमंग भी मैं हूँ
राधा की साँसों की धड़कन,
बाँसुरी की तान भी मैं हूँ
मैं हूँ सब का रखवाला,
सब अनाथों का नाथ भी मैं हूँ

अंबर हरियाणवी
सर्वाधिकार सुरक्षित : KILOIA


अंतिम आरामगाह

दोस्ती सी हो गयी है
मेरी
इस श्मशान घाट से
एक दिन मुझे भी तो
आना है यहीं
मेरी अंतिम आरामगाह।

जब भी आता हूँ
किसी को विदा करने
लगता है छूट गया है
पीछे कुछ
एक पूरी ज़िन्दगी
हो जाती है खत्म
यहाँ आने के बाद।

मन में
जाग उठता है बैराग
लगता है जी रहे हैं हम
व्यर्थ ही
जो भी कमाया था
जीवन भर
सब तो यहीं रह गया है।

कुछ नहीं है साथ में
ले जाने के लिये।
चिता पर लिटा दिया
उसी पुत्र ने
लगा दी आग
जिसे दिया था जन्म
और फिर वो कपाल-क्रिया
अपना ही खून
तोड़ता है खोपड़ी
वापस लौट जाते हैं
अपने सभी
करके आग के हवाले।

जिस तन पर गर्व था
जिस धन पर गर्व था
जिस जीवन पर गर्व था
सब राख बस राख
पंच तत्व विलीन
पंच तत्व में
बचा क्या अब
कुछ मुट्ठी राख
कुछ हड्डियाँ

लिखा था वहाँ
अंतिम मंज़िल तो यहीं है
इंसान लगा देता है पूरा जीवन
यहाँ तक आते आते
यहीं तो है तेरी
अंतिम आरामगाह

अंबर हरियाणवी
सर्वाधिकार सुरक्षित : KILOIA

उसकी माया !

ज़िन्दगी की जद्दोजहद में
ये किस मुकाम पर
आ गया हूँ मैं !

लगता है ऐसा मुझे
दुखों को बहुत
करीब से भा गया हूँ मैं।

कभी सुखों के सागर में
गोते लगवाता है
कभी ग़मों की मझधार में
डुबाता है।

कभी आँसुओं में भी
मुझे मुस्कान देता है
कभी बीच हँसी में भी
मुझे रुलाता है।

मैं मूर्ख उसकी माया
समझ नहीं पाता हूँ
हर तरक्की को
अपनी करनी बताता हूँ।।

अंबर हरियाणवी
सर्वाधिकार सुरक्षित : KILOIA


Monday, February 4, 2019

जागो !

न ढलता दिन अगर
न होता कभी अंधेरा
न उगता अगर सूरज
न होता कभी सवेरा

जीवन की आपा - धापी में
खो गया हूँ बीच दिनों के
आज है जाता कल है आता
नहीं होता कहीं बसेरा
न उगता अगर सूरज
न होता कभी सवेरा

यौवन बीता आया बुढ़ापा
रुत जीवन की चली गयी
कल को रोता आज को खोता
बस करता तेरा - मेरा
न उगता अगर सूरज
न होता कभी सवेरा

जागो ! खोलो आँखें अब तो
भोर जीवन की देती दस्तक
क्यों अब भी तू है सोता
अंधकार का हट गया पहरा
न उगता अगर सूरज
न होता कभी सवेरा।

अम्बर हरियाणवी

मैं और खुशियाँ

जब भी सोचता हूँ
ठीक है अब सब कुछ
तभी सब कुछ
गड़बड़ा जाता है।
कहाँ होती हैं
गलतियां मुझ से
समझ कुछ मुझे
नहीं आता है।

सब को खुश
कैसे रखूं मैं
मुझे ये सब तो
नहीं आता है
बनाते बनाते
करता हूँ कोशिश
पर सारा काम
बिगड़ जाता है।

उम्मीद में खुशियों की
लगा रहता हूँ
सोच में रातों में
जगा रहता हूँ
फिर भी न जाने
गम कहाँ से आता है
खुशियों पर सब
पानी फेर जाता है

कट गयी है आधी
आधी भी कट जायेगी
पर बीती हुई जिंदगी
क्या वापिस लौट पायेगी
पछताते हैं फिर हम
जब सब कुछ खो जाता है।
कहाँ होती हैं
गलतियां मुझ से
समझ कुछ मुझे
नहीं आता है।

अम्बर हरियाणवी 
@KILOIA

ज़िंदगी और धर्म


ज़िंदगी की जद्दोजहद में
लगे है सभी
चाहे हों हिन्दू
चाहे हों मुसलमान
चाहे हों सिक्ख
चाहे ईसाई

किसे फ़ुरसत है
बात करे धर्म की
पेट धर्म के आगे
सभी धर्म फ़ीके हैं

पेट मांगता है खाना
वो नहीं जानता कोई धर्म
पेट को भरने का
करते सभी कर्म

वो बूढ़ी अम्मा
बेचती है सब्जियां
नाम के लिये
वो तो बाँटती है
खूब सारा प्यार
सभी में
न उसे धर्म से लेना
न उसे जाति से कुछ लेना
जो भी आता है
सब्जी के साथ पाता है
अम्मा का प्यार

वो बूढ़े अब्दुल मियां
अपनी ही तरह
बूढ़ी हो चुकी साइकिल पर
बेचने निकलते हैं
अपना पेट भरने की खातिर
भरते हैं दूसरों का पेट
बेचते हैं नमकीन और ब्रेड
कोई नहीं पूछता
तुम किस धर्म के हो
तुम किस जात के हो
छोटे बड़े, बच्चे बूढ़े
सभी ख़रीदते हैं उनसे

वो पीपल के पेड़ के नीचे
बूढ़ा हो चला मोची
पीपल के पेड़ की तरह
बढ़ती उम्र उसकी
अब भी सुबह से शाम तक
पूरे दिन करता है मेहनत
कमाता है कुछ पैसे
भरने को पेट
अपना और परिवार का
जूते ठीक करवाते
किसी ने नहीं पूछा
उसकी जाति और धर्म
तुम हिन्दू हो
या तुम मुसलमान हो
लगते तो तुम
सब जैसे इंसान हो

सब की अपनी अपनी मज़बूरी है
धर्म से पहले, पेट की आग बुझानी ज़रूरी है।
पेट न कोई जाति न ही कोई धर्म जानता है
वो तो रोटी को ही तो बस मानता है
पेट हो भरा तो खुराफ़ात सूझती है
जाति और धर्म को पूछती है।

ओ दुनियां के शैतानों
तुम भी जागो और जानो
सब से पहले इंसान है
उस के बाद धर्म और ईमान है।

अम्बर हरियाणवी

सर्वाधिकार सुरक्षित
@kiloia


पुस्तक लोकार्पण, सम्मान समारोह की रिपोर्ट :


नयी दिल्ली - 6 जनवरी 2019. विश्व पुस्तक मेले में मगसम के सौजन्य से दो पुस्तकों का विमोचन हुआ। पहली ऋग्वेद के रहस्य लेखिका उमा गुप्ता जी, ( सेवानिवृत जल विधुत विभाग देहरादून) तथा दूसरी तेरह साल का शहीद विधार्थी रामचंद्र लेखक भीम प्रसाद प्रजापति ( प्रधानाचार्य,  राजकीय विद्यालय देवरिया ) ।

लोकार्पण और सम्मान समारोह स्टाल नम्बर ३३२, प्रगति मैदान पर  हुआ।

इस अवसर पर श्रीमती विजयलक्ष्मी ‘विजया’ ( संरक्षिका, जयकृति साहित्य फाउण्डेशन ) मुकेश गोयल ‘किलोईया’,( उपाध्यक्ष, जयकृति साहित्य फाउण्डेशन) के साथ दोनों पुस्तकों के लेखक, उपस्थित थे।
कार्यक्रम की मुख्य अतिथि विजयलक्ष्मी विजया ऊर्फ़ विजया बीकानेरी जी थीं। कार्यक्रम का संचालन हेमचन्द्र सकलानी जी ने किया।

दोनों पुस्तकों पर श्री मुकेश गोयल किलोईया, श्री कर्मेश सिन्हा, श्री विजय विभोर, श्री हेमचन्द्र सकलानी,  श्रीमती गीता सिन्हा गीतांजलि  एवं विजयलक्ष्मी विजया जी ने विस्तृत समीक्षात्मक चर्चा करते हुए इन दोनों ही लेखकों को बधाई दी।

भीम प्रसाद जी की पुस्तक तेरह साल का शहीद विधार्थी रामचंद्र एक ऐसी कहानी है जिसमें लेखक ने एक गुमनाम शहीद को सब के सामने लाने का प्रयास किया है . रामचंद्र सम्भवतः दुनिया  के सब से छोटी उम्र के शहीद होंगे जिन्होंने देश के लिए तिरंगा फहराते हुए अपनी जान दे दी. १४ अगस्त १९४२ को देवरिया में इस नन्हे शहीद ने देश पर अपनी कुर्बानी दी।

उमा जी की पुस्तक ऋग्वेद के रहस्य ऋग्वेद की हिंदी में व्याख्या करने का प्रयास है। आज के समय में संस्कृत सभी नहीं  पढ़ सकते है, किन्तु हिंदी सभी पढ़ लेते हैं। ऋग्वेद में हमारे सम्पूर्ण जीवन के बारे में बताया गया है।
देश काल के अनुसार राजा का क्या कर्तव्य है; प्रजा को क्या करना चाहिए; इसके अलावा भी बहुत सी बातें बताई गयी हैं . सभी को ये दोनों पुस्तकें अवश्य पढ़नी चाहियें और अपनों बच्चों को पढ़ने को देनी चाहियें।

कार्यक्रम में मगसम के राष्ट्रीय संयोजक श्री सुधीर सिंह ‘सुधाकर’, श्री अमरजीत गिरी, आदित्य राजुल, जयकृति राजुल, तानिया, हर्षित, रोमशा, तुणीर गोयल, उमा गुप्ता जी के परिजन, गीता सिन्हा जी के पतिश्री के साथ-साथ और भी कई साहित्यकार उपस्थित रहे।

सुधीर जी ने मगसम के उद्देश्य और कार्यों की चर्चा की . अंत में श्रीमती विजया जी ने मुख्य अतिथि के तौर पर बोलते हुए कहा कि साहित्यकारों के मध्य मतभेद भले हों परन्तु मनभेद नहीं होना चाहिये।
विजया जी ने मगसम के साथ-साथ दोनों लेखकों को भी बधाई एवं उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं दीं।

Sunday, February 3, 2019

मौसम और इंसान !

ये बदलता मौसम
असर है प्रदूषण का
वो कंपकंपाती ठंड
वो गहरा कुहासा
सब खो रहा है
धीरे धीरे।

पहनते थे हम सब
मोटे मोटे वस्त्र
फिर भी हमें
लगती थी ठंड
वो हाथों को चीरती
ठंडी हवाएं
वो कानों को सहलाती
गालों को करती लाल
हो जाते थे सेब से
दोनों गाल
वो ठंडे हाथों से
छूना किसी को
वो रजाई खींच कर
जगाना किसी को
वो तालाब के पानी में
ऊँगली डूबोना
झटके से उसे फिर
बाहर निकालना
सी-सी कर-कर के
ज़ोर से घुमाना
सब बदल गया है अब तो ।

मौसम भी गिरगिट हो गया है
वो बदलता रहता है हर पल।
इंसानी स्वभाव भी कुछ कुछ
हो रहा है मौसम सा
कभी सर्द कभी गर्म।
उस पर न जाने
असर है कौन से प्रदूषण का
क्यों हो रहा है गर्म तवे सा?
जलता रहता है क्रोध की आग में
जैसे रखा हो नाक की नोक पर
न वो सहनशक्ति है न है शीतलता
मौसम के साथ खो गयी है
इंसान की इंसानियत
वो भाईचारा
वो आपसी शिष्टाचार
कैसे होगा दूर
ये प्रदूषण
कैसे फिर से आएगी वो ठंड?
कैसे होगा इंसानी मन शीतल।

अम्बर हरियाणवी
@KILOIA

पतंग और रिश्तें !

यूँ तो उड़ती है,
हजारों पतंगे आसमान में।
कुछ ही होती हैं,
जो जुड़ी रहती हैं अपनी डोर से।
वो झेलती है,
हवाओं के खतरनाक थपेड़े।
दूसरी पतंगों से,
होता है कठिन मुकाबला ।
अपने ही तो है,
जो काटते है अपनों से ही।
काट देते है ऐसे,
जड़ ही हो जाती है खत्म उनकी।
हो जाती है बेसहारा,
खाती फिरती है ठोकरें दर दर की।
लूट ली जाती है,
बीच राह में टूट पड़ते है भूखे भेड़िए।
हमें अगर जीना है,
न करो अपनों से मुकाबला कभी भी।
न करो ईर्ष्या और द्वेष,
मिल कर रहों अपनों के साथ जुड़ कर।

अम्बर हरियाणवी
©KILOIA